नमस्कार कृषक मित्रों,
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सोयाबीन भारत के प्रमुख तिलहनी फसलों में से एक है, लेकिन इसकी खेती करते समय किसानों को कई प्रकार की बीमारियों का सामना करना पड़ता है, जो फसल की वृद्धि, उत्पादन और गुणवत्ता – तीनों पर प्रभाव डालती हैं। यदि इन रोगों की पहचान समय पर न हो और उचित नियंत्रण न किया जाए, तो उत्पादन में भारी गिरावट आ सकती है।
इस लेख में हम जानेंगे कि सोयाबीन की फसल में कौन-कौन से प्रमुख फफूंद जनित रोग लगते हैं, उनके लक्षण क्या होते हैं और उन्हें रोकने या नियंत्रित करने के लिए कौन-कौन से प्रभावी उपाय अपनाए जा सकते हैं, तो आईये जानते है सोयाबीन में लगने वाले रोग और उनके नियंत्रण के बारे में ।
सोयाबीन में लगने वाले रोग
सोयाबीन की खेती में लगने वाले प्रमुख फफूंद जनित रोग इस प्रकार है :
रोग का नाम | कारक (Pathogen) |
---|---|
एन्थ्रेक्नोज (Anthracnose) | Colletotrichum truncatum |
चारकोल रॉट (Charcoal Rot) | Macrophomina phaseolina |
कॉलर रॉट (Collar Rot) | Sclerotium rolfsii |
पर्पल सीड स्टेन (Purple Seed Stain) | Cercospora kikuchii |
एल्टरनेरिया लीफ स्पॉट (Alternaria Leaf Spot) | Alternaria tenuissima, A. alternata |
फ्रॉगआई लीफ स्पॉट (Frogeye Leaf Spot) | Cercospora sojina |
राइजोक्टोनिया एरियल ब्लाइट (Rhizoctonia Aerial Blight) | Rhizoctonia solani |
गेरूआ रोग / सोयाबीन रस्ट (Soybean Rust) | Phakopsora pachyrhizi |
मायरोथिसियम पत्ती धब्बा रोग (Myrothecium Leaf Spot) | Myrothecium roridum |
सोयाबीन की फसल में एन्थ्रेक्नोज रोग: पहचान और नियंत्रण
सोयाबीन में एन्थ्रेक्नोज एक व्यापक रूप से पाया जाने वाला फफूंदजनित रोग है, जो विशेष रूप से गर्म और नमी वाली परिस्थितियों में तेज़ी से फैलता है। इस रोग का कारण Colletotrichum truncatum नामक फफूंद है, जो बीज और संक्रमित पौधों के अवशेषों में जीवित रहता है। यह रोग भारत के लगभग सभी सोयाबीन उत्पादक क्षेत्रों में पाया जाता है और उत्पादन में 16 से 25 प्रतिशत तक नुकसान पहुंचा सकता है। कभी-कभी यह क्षति 100 प्रतिशत तक भी पहुँच जाती है।
रोग का प्रकोप पौधे की किसी भी अवस्था में हो सकता है, लेकिन इसके लक्षण प्रायः फूल आने के समय दिखाई देते हैं। यह तनों, पर्णवृन्तों और फलियों को सबसे पहले प्रभावित करता है। शुरू में लाल या गहरे भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं। कुछ ही समय में इन धब्बों पर काले रंग की फफूंदीय संरचनाएं (एसरवुलाई) और कांटों जैसी रचनाएं विकसित हो जाती हैं, जो इस रोग की प्रमुख पहचान होती है।
मुख्य लक्षण:
• तने, पत्तियों और फलियों पर गहरे भूरे धब्बे
• धब्बों पर काले रंग की फफूंदीय संरचनाएं (एसरवुलाई)
• पत्तियों की शिराओं का पीला-भूरा होना, मुड़ना और झड़ना
• फलियों का पीला-भूरा पड़ना और बीजों का सिकुड़ जाना
• संक्रमित बीजों से अंकुरण से पहले या बाद में पौधों का मर जाना
रोकथाम और नियंत्रण के उपाय:
• केवल साफ, स्वस्थ और प्रमाणित बीजों का ही प्रयोग करें
• खेत में रोगग्रस्त पौधों के अवशेषों को नष्ट करें या जला दें
• रोग प्रतिरोधी किस्मों की बुवाई करें
• बीजोपचार हेतु थायरम या केप्टान 0.3% का प्रयोग करें
• रोग के लक्षण दिखने पर थायोफिनेट मिथाइल या बेनोमिल 0.2% का छिड़काव करें
समय पर सावधानी और सही प्रबंधन विधियों को अपनाकर किसान इस रोग के प्रभाव को काफी हद तक कम कर सकते हैं और स्वस्थ फसल प्राप्त कर सकते हैं।
सोयाबीन की फसल में चारकोल सड़न रोग: पहचान और नियंत्रण
सोयाबीन में चारकोल सड़न रोग एक गंभीर फफूंदजनित बीमारी है, जो विशेष रूप से सूखे या कम नमी की स्थिति में अधिक प्रकोप करती है। इस रोग का प्रमुख कारण Macrophomina phaseolina नामक फफूंद है, जो मिट्टी और बीज दोनों से फैलता है। यह बीमारी मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली जैसे क्षेत्रों में पाई जाती है, जहाँ 25 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान और कम मिट्टी नमी जैसी स्थितियाँ सामान्य होती हैं। वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार, यह रोग फसल उत्पादन में 77% तक की क्षति पहुँचा सकता है, विशेषकर तब जब इसका नियंत्रण समय पर न किया जाए।
यह रोग आमतौर पर जड़ सड़न और विल्ट (सूखने) के रूप में प्रकट होता है। संक्रमित नवांकुर (seedlings) बहुत जल्दी कमजोर होकर सूखने लगते हैं। रोग ग्रसित पौधों के हाइपोकोटाइल और तनों का वह भाग जो मिट्टी के संपर्क में होता है, लाल-भूरे रंग का हो जाता है। जैसे-जैसे संक्रमण बढ़ता है, पौधे की पत्तियाँ पीली पड़ने लगती हैं और वह मुरझा जाते हैं। रोग की सबसे विशिष्ट पहचान है — तने और जड़ों के ऊपर वाले हिस्से के ऊतकों में असंख्य काले रंग के स्केलेरोशिया का दिखना, जो फफूंद की संक्रामक संरचनाएं होती हैं।
मुख्य लक्षण:
• नवांकुर (नवजात पौधे) का कमजोर होकर मर जाना
• हाइपोकोटाइल और निचला तना लाल-भूरे रंग का होना
• पत्तियों का पीला पड़ना और पौधों का मुरझाना
• तनों और जड़ों में हल्के भूरे ऊतक और स्केलेरोशिया का दिखना
• सूखे मौसम में रोग का तेज़ प्रकोप
रोकथाम और नियंत्रण के उपाय:
• फसल चक्र अपनाएं या कपास और अनाज के साथ मिलवाँ खेती करें
• समय पर संतुलित खाद और पौध संख्या का प्रयोग करें
• यदि संभव हो तो बुवाई से 3–4 सप्ताह पहले खेत को जलमग्न करें और मिट्टी की नमी बनाए रखें
• बीजों का उपचार थायरम या केप्टान (3–4 ग्राम प्रति किलो बीज) से करें
• साथ में Trichoderma harzianum या Trichoderma viride (4–5 ग्राम प्रति किलो बीज) का प्रयोग भी फायदेमंद होता है
यह भी देखें : सोयाबीन के प्रमुख हानिकारक किट एवं उनका प्रबंधन भाग-1
सोयाबीन की फसल में कॉलर रॉट रोग: पहचान और नियंत्रण
सोयाबीन की फसल में कॉलर रॉट रोग एक गंभीर और व्यापक रूप से पाया जाने वाला फफूंदजनित रोग है, जो विशेषकर गर्मी और अधिक नमी वाली परिस्थितियों में तेज़ी से फैलता है। इसका प्रमुख कारण Sclerotium rolfsii नामक फफूंद है, जिसका Athelia rolfsii नामक रूप (teleomorph) भी होता है। यह रोग मिट्टी जनित होता है और देश के अधिकांश सोयाबीन उत्पादक क्षेत्रों में पाया जाता है। वैज्ञानिक रिपोर्टों के अनुसार, इस रोग के कारण 30% से 40% तक पैदावार में कमी आ सकती है यदि समय पर नियंत्रण न किया जाए।
यह फफूंद विशेष रूप से नवजात पौधों में ‘डैम्पिंग ऑफ’ और विकसित पौधों में ‘कॉलर रॉट’ के रूप में दिखाई देती है। इसका प्रभाव तने के उस हिस्से पर होता है जो जमीन के संपर्क में होता है। प्रारंभिक अवस्था में इस हिस्से पर हल्के भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। कुछ ही समय में तना सफेद फफूंदीय जाल से ढक जाता है, और उस पर लाल-भूरे रंग के गोल स्केलेरोशिया (सरसों के बीज जैसे) बनते हैं, जो इस रोग की प्रमुख पहचान माने जाते हैं। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, तने का यह हिस्सा सड़ने लगता है और पौधा मुरझाकर झुक या गिर जाता है।
मुख्य लक्षण:
• नवांकुर में डैम्पिंग ऑफ और विकसित पौधों में कॉलर रॉट
• तने के निचले हिस्से पर हल्के भूरे धब्बे
• तने पर सफेद कवकजाल और लाल-भूरे गोल स्केलेरोशिया का बनना
• कॉलर रीजन का सड़ जाना
• पौधे का मुरझाना और गिर जाना
रोकथाम और नियंत्रण के उपाय:
• गर्मी में गहरी जुताई करें ताकि रोग जनक फफूंद नष्ट हो
• खेत को साफ रखें और संक्रमित पौधों को तुरंत उखाड़कर जला दें
• मक्का, ज्वार आदि के साथ फसल चक्र अपनाएं
• बीजों का उपचार कार्बेन्डाजिम + थायरम (1:2) मिश्रण से करें (3 ग्राम प्रति किलो बीज)
• Trichoderma viride 4–5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से जैव उपचार भी उपयोगी है
सोयाबीन का बैंगनी बीज रोग (Purple Seed Stain) – कारण, लक्षण और प्रबंधन
बैंगनी बीज रोग, जिसे वैज्ञानिक रूप से Cercospora kikuchii द्वारा फैलने वाला रोग कहा जाता है, सोयाबीन की फसल में बीज की गुणवत्ता और अंकुरण क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। यह रोग खासकर गर्म और नम वातावरण में उभरता है और भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। यह फफूंद बीज और संक्रमित पौधों के अवशेषों में जीवित रह सकती है, जिससे अगली फसल भी प्रभावित हो सकती है।
रोग के लक्षण
इस रोग के लक्षण सोयाबीन के बीज बनने की अवस्था में प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं।
- पत्तियों की दोनों सतहों पर हल्के रंग से लेकर लाल-बैंगनी रंग के कोणीय या अनियमित आकार के धब्बे बनते हैं।
- कभी-कभी पौधे की ऊपरी पत्तियाँ हल्के बैंगनी रंग की हो जाती हैं और उनकी बनावट चमड़े जैसी दिखाई देती है।
- रोग बढ़ने पर पत्तियाँ पीली और भूरी होकर झड़ने लगती हैं, और पत्तियों की शिराओं का रंग भी बदलकर पीला-भूरा हो जाता है।
- तनों, फलियों और पर्णवृंतों पर भी अंदर की ओर धंसे हुए बैंगनी-लाल धब्बे बन जाते हैं।
- गंभीर प्रकोप की स्थिति में तने 7–10 दिन पहले ही सूख जाते हैं।
- सबसे मुख्य लक्षण यह है कि बीजों पर गुलाबी से बैंगनी रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिससे अंकुरण दर घट जाती है। ऐसे बीजों से उगने वाले पौधों के पत्रदल सिकुड़ जाते हैं और उनका रंग भी असमान्य हो जाता है, जिससे वे प्रारंभिक अवस्था में ही नष्ट हो सकते हैं।
रोग प्रबंधन
इस रोग से बचाव एवं नियंत्रण के लिए वैज्ञानिक तौर पर निम्नलिखित उपाय सुझाए गए हैं:
- केवल स्वच्छ और स्वस्थ बीजों का चयन करें।
- रोग-प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करें।
- बीजों का उपचार थाइरम या केप्टान 0.3% द्रव्य में करें।
- फसल में रोग के लक्षण दिखने पर बेनोमिल फफूंदनाशी का छिड़काव करें (0.5 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से)।
यह भी पढे : सोयाबीन के प्रमुख हानिकारक किट एवं उनका प्रबंधन भाग-1
सोयाबीन की फसल में एल्टरनेरिया पर्ण चित्ती रोग (Alternaria Leaf Spot)
सोयाबीन की खेती करने वाले किसानों के लिए यह जानना जरूरी है कि कुछ रोग फसल की पैदावार और गुणवत्ता दोनों को बुरी तरह प्रभावित कर सकते हैं। एल्टरनेरिया पर्ण चित्ती रोग, विशेष रूप से देर से बोई गई और गर्म व नम मौसम की फसल में, धीरे-धीरे फसल को कमजोर कर देता है। यह रोग भारत के लगभग सभी प्रमुख सोयाबीन उत्पादक क्षेत्रों में देखा गया है।
इस रोग का कारण Alternaria tenuissima और Alternaria alternata नामक फफूंदें होती हैं। ये फफूंदें बीज और संक्रमित पौधों के अवशेषों में जीवित रहती हैं, और वहीं से फसल में फैलाव शुरू होता है। रोग की शुरुआत सामान्यत: पत्तियों से होती है लेकिन धीरे-धीरे फलियों और बीजों तक इसका असर पहुंचता है।
शुरुआती लक्षणों में पत्तियों पर पीले-भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे दिखाई देते हैं, जो संकेन्द्रिक वृत्तों के रूप में बढ़ते जाते हैं। ये धब्बे बाद में आपस में मिलकर पत्तियों के बड़े हिस्से को ढक लेते हैं, जिससे पत्तियां जल्दी सूखकर गिरने लगती हैं। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, बीज भी संक्रमित हो जाते हैं और उनका अंकुरण कमजोर पड़ जाता है।
रोग की पहचान के मुख्य लक्षण:
- पत्तियों पर पीले-भूरे रंग के संकेन्द्रिक वृत्तों वाले धब्बे
- रोग बढ़ने पर पत्तियों का सूखना और झड़ना
- बीजों की अंकुरण क्षमता में कमी आना
प्रभावी प्रबंधन उपाय:
- रोग प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग करें
- बीज उपचार: थायरम और बेविस्टिन (1:1) को 3 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से मिलाकर उपचार करें
- फसल पर ज़रूरत अनुसार छिड़काव करें: डायथेन एम-45 या जाइनेब का 0.2% घोल उपयोग करें
सोयाबीन में फ्रॉग आई लीफ स्पॉट रोग: पहचान, प्रभाव और नियंत्रण
सोयाबीन की फसल में कई प्रकार की पत्तियों को नुकसान पहुँचाने वाली बीमारियाँ देखी जाती हैं, जिनमें से एक है फ्रॉग आई लीफ स्पॉट। यह रोग विशेष रूप से उन क्षेत्रों में अधिक फैलता है जहाँ गर्मी के साथ नमी भी अधिक होती है। यह बीमारी बीज और रोगग्रस्त फसल अवशेषों में जीवित रहने वाले एक फफूंद Cercospora sojina के कारण होती है।
फ्रॉग आई लीफ स्पॉट की शुरुआत फसल की बुवाई के लगभग दो महीने बाद देखी जाती है। सबसे पहले इसके लक्षण पत्तियों और तनों पर हल्के भूरे रंग के गोल या कोणीय धब्बों के रूप में दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे रोग बढ़ता है, इन धब्बों के बीच का भाग हल्के भूरे रंग का और किनारे बैंगनी से गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं। धब्बों के चारों ओर पीले रंग की परत बन जाती है, जो इस रोग का मुख्य लक्षण माना जाता है।
अगर समय रहते इस रोग का प्रबंधन न किया जाए, तो पत्तियों पर अधिक धब्बे बन जाते हैं जिससे वे सूखकर गिर जाती हैं। फलियों पर भी जलसिक्त धब्बे बनते हैं, जो बाद में धंसे हुए और लाल-भूरे रंग के हो जाते हैं। इसके अलावा, बीज पर भी हल्के से गहरे भूरे धब्बे बन सकते हैं, जिससे बीज की गुणवत्ता और अंकुरण क्षमता दोनों प्रभावित होती हैं।
रोकथाम और प्रबंधन के उपाय:
- रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करें।
- खेत से रोगग्रस्त पौधों और फसल अवशेषों को हटाकर नष्ट करें, ताकि फफूंद का प्रसार रोका जा सके।
- रोग के लक्षण दिखाई देने पर जाइनेब या जायरम (0.2 प्रतिशत घोल) का छिड़काव करें।
सोयाबीन में राइजोक्टोनिया एरियल ब्लाइट: लक्षण, कारण और नियंत्रण
सोयाबीन की फसल में पत्तियों और तनों को नुकसान पहुँचाने वाले रोगों में से एक है राइजोक्टोनिया एरियल ब्लाइट, जिसे Rhizoctonia solani फफूंद उत्पन्न करता है। यह रोग विशेष रूप से उन क्षेत्रों में देखा जाता है जहाँ बारिश लगातार होती है। यह न केवल पत्तियों को प्रभावित करता है बल्कि बीज, जड़, कॉलर और तने में सड़न भी पैदा करता है, जिससे 35% तक उपज का नुकसान हो सकता है।
प्रमुख लक्षण:
- जड़ों और तनों के निचले हिस्से में लाल-भूरे रंग के धंसे हुए धब्बे।
- निचली पत्तियों पर स्लेटी-भूरे से लेकर लाल-भूरे धब्बे, जो बाद में गहरे हो जाते हैं।
- पत्तियों के झड़ने से तने पर केवल खाली डंठल शेष रह जाते हैं।
- तने, डंठलों और फलियों पर अण्डाकार या लंबे गहरे धब्बे।
- बीजों पर भी हल्के बादामी रंग के धंसे हुए धब्बे।
रोकथाम एवं नियंत्रण:
- रोग सहनशील किस्में लगाएं।
- अधिक घनी बुवाई से बचें।
- बीज उपचार: थायरम या केप्टान (0.3–0.4%) से।
- रोग दिखने पर: कार्बेंडाजिम (0.05%) या डायथेन एम-45 (0.25%) का छिड़काव करें।
सोयाबीन में गेरूआ रोग (Soybean Rust): एक खतरनाक फफूंदजनित बीमारी
गेरूआ रोग, जो कि Phakopsora pachyrhizi फफूंद के कारण होता है, सोयाबीन की सबसे तेजी से फैलने वाली और नुकसानदायक बीमारियों में से एक है। यह रोग पहली बार 1906 में भारत के पूना क्षेत्र में देखा गया था। आज यह रोग महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु सहित कई राज्यों में देखा जा चुका है।
लक्षण:
- पत्तियों पर सुई की नोक जैसे मटमैले भूरे-लाल धब्बे, जो समूह में होते हैं।
- धब्बों के आसपास का क्षेत्र पीला होता है।
- नीचे की पत्तियाँ सबसे पहले प्रभावित होती हैं, जो बाद में सूखकर गिर जाती हैं।
- ग्रसित पत्तियों को थपथपाने पर भूरे रंग का पाउडर निकलता है – यह इस रोग का विशेष संकेत है।
रोग कब आता है?
- अधिक बारिश, 18–28°C तापमान, 80% से अधिक आर्द्रता, और पत्तियों पर 3–4 घंटे नमी रहने पर रोग फैलने की संभावना बहुत अधिक हो जाती है।
बचाव के उपाय:
- रबी व गर्मी में सोयाबीन की खेती न करें।
- फसल चक्र अपनाएं, जैसे मक्का, कपास या अरहर।
- सहनशील किस्में लगाएं।
- रोग के शुरुआती लक्षणों पर ग्रसित पौधों को हटाएं।
- दवा छिड़काव: हेक्जाकोनाझोल, ट्राइडिमेफोन या प्रोपीकोनाजोल – 800 लीटर पानी में 800 मि.ली./ग्राम।
- सुरक्षात्मक छिड़काव: बुवाई के 35–40 दिन बाद करें।
- 6 कतारों के बाद एक कतार खाली छोड़ें ताकि दवा छिड़काव में आसानी हो।
सोयाबीन में मायरोथिसियम पत्ती धब्बा रोग (Myrothecium Leaf Spot)
कारक: Myrothecium roridum Tode ex Fries
सोयाबीन की फसल में मायरोथिसियम पत्तों का धब्बा रोग भारत के लगभग सभी सोयाबीन उत्पादक क्षेत्रों में पाया जाता है। यह रोग Myrothecium roridum नामक फफूंद के कारण होता है, जो सामान्यतः बीज और संक्रमित पौधों के अवशेषों में जीवित रहता है। यह रोग खासतौर पर गर्मी व नमी वाली जलवायु में अधिक फैलता है और उपज को 20 से 40 प्रतिशत तक नुकसान पहुँचा सकता है यदि समय पर नियंत्रण न किया जाए।
शुरुआती संक्रमण में पत्तियों पर छोटे गोल धब्बे दिखाई देते हैं जिनका रंग गहरा भूरा होता है और किनारे बैंगनी रंग के होते हैं। यह धब्बे अक्सर अर्धपारदर्शी संकेन्द्रिक वृत्तों से घिरे रहते हैं। समय के साथ ये धब्बे आपस में मिलकर आकार में बड़े हो जाते हैं और इनका स्वरूप अनियमित हो जाता है। जब संक्रमण बढ़ता है, तो धब्बों के अंदर सफेद रंग की संरचनाएं (स्पोरोडोकिया) विकसित होती हैं, जो धीरे-धीरे काले रंग की हो जाती हैं। कई बार इन धब्बों का मध्य भाग नष्ट हो जाता है जिससे पत्तियों में छेद बन जाते हैं, जो इस बीमारी की विशिष्ट पहचान है।
यह रोग फसल की वृद्धि को प्रभावित करता है, जिससे प्रकाश संश्लेषण कम होता है और पौधे की ताकत घट जाती है।
प्रबंधन के उपाय:
- स्वच्छ और प्रमाणित बीज का चयन करें।
- रोग प्रतिरोधी या सहनशील किस्मों का उपयोग करें।
- बुवाई से पहले थायरम या केप्टान (0.3–0.4%) से बीजोपचार करें।
- रोग की स्थिति में फसल पर निम्न दवाओं में से किसी एक का छिड़काव करें:
- कार्बेंडाजिम या थायोफिनेट मिथाइल (0.05–0.1%)
- डायथेन एम-45 (0.25%)
- पहला छिड़काव बुवाई के 35 दिन बाद करना अधिक प्रभावी रहता है।
यदि इस रोग की पहचान प्रारंभिक अवस्था में हो जाए और उचित उपाय अपनाए जाएं, तो फसल को बचाया जा सकता है। इसके लिए वैज्ञानिक रोकथाम एवं नियंत्रण उपायों को अपनाना आवश्यक है।
किसान समय पर सावधानी और समुचित वैज्ञानिक उपायों को अपनाकर इन खतरनाक रोगो के प्रभाव को काफी हद तक नियंत्रित कर सकते हैं और स्वस्थ फसल व अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।
Disclaimer
नोट: फफूंदनाशी दवाओं के उपयोग से पहले स्थानीय कृषि अधिकारी या विशेषज्ञ की सलाह अवश्य लें। सभी दवाएं निर्दिष्ट मात्रा में और सही समय पर ही उपयोग करें।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQs)
प्रश्न 1: सोयाबीन की फसल में एन्थ्रेक्नोज रोग कैसे पहचानें और इसका इलाज क्या है?
एन्थ्रेक्नोज रोग में तनों और फली पर भूरे-काले धब्बे दिखते हैं।
प्रश्न 2: चारकोल रॉट रोग से फसल को कितना नुकसान होता है?
यह रोग पौधे के जड़ और तने को सड़ा देता है जिससे पौधा सूखने लगता है।
प्रश्न 3: एल्टरनेरिया पत्ती धब्बा रोग का प्रमुख लक्षण क्या है?
पत्तियों पर भूरे रंग के गोल-गोल धब्बे बनते हैं जो धीरे-धीरे बढ़ते हैं।
प्रश्न 4: फ्रॉगआई लीफ स्पॉट रोग किन भागों को प्रभावित करता है
मुख्यतः पत्तियों को। इनमें छोटे-छोटे गोलाकार धब्बे बनते हैं जो बाद में भूरे और किनारों से काले हो जाते हैं।
प्रश्न 5: सोयाबीन रस्ट (गेरूआ रोग) क्या होता है?
पत्तियों के निचले भाग पर छोटे नारंगी-भूरे धब्बे बनते हैं जो गेरूआ चूर्ण की तरह दिखते हैं।
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